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ὅππα Κύπριδος ἶρον καλάμῳ χλῶρον ὑπ ̓ ἀπάλῳ.
τυΐδε γὰρ πλόον εὐάνεμον αἰτήμεθα πὰρ Δίος,
ὅπως ξέννον ἔμον τέρψομ ̓ ἴδων κἀντιφιλήσομεν,
Νικίαν, Χαρίτων ἱμεροφώνων ἴερον φύτον,
καὶ σὲ τὰν ἐλέφαντος πολυμόχθω γεγενημέναν
δῶρον Νικιάας εἰς ὀλόχω χέρρας ὀπάσσομεν,
σὺν τῇ πόλλα μὲν ἔργ ̓ ἐκτελέσεις, ἀνδρεῖοις πέπλοις,
πόλλα δ ̓ οἷα γύναικες φορέοισ ̓ υδάτινα βράκη.

Ausg. p. 226. ὑμάρτη= ὁμάρτει. Das o geht bei den Aeoliern in v über. Vgl. 29, 20 ὅμοιος = ὁμοῖος. 29, 25. 28, 16. Ahr. dial. Aeol. p. 81. Die Endung ist -η statt -ει. Vgl. 29, 20 φίλη = φίλει. Ahr. p. 89 flg. πόλις Νείλεος ist Milet, als dessen Gründer Neleus, der Sohn des Kodrus, genannt wird. Weiteres s. gr. Ausg. p. 226.

– Χαρίτων. S. Anm. zu 16, 6. φύτον äol. φυτόν. S.7, 44. 8. ἐλέφ. Ein goldener Spinnrocken wird Odyss. 4, 131 erwähnt. πολυμόχθω, Ueber die auch aeolische Genetivendung s. Dor. § 75. Das Elfenbein bezeichnet der Dichter hier als schwer zu bearbeiten (nicht künstlich gearbeitet, Am.). Ἐλέφας ist hier nicht der Elephant. (Briggs wollte es so verstehen). Die Lesart πολυμόχθω (s. gr. Ausg. p. 230) bestätigt nach Ziegler auch cod. c, wo πολυμόχθω steht, das o aber hineincorrigirt ist. Wahrscheinlich stand dort erst πολυμέχθω.

4. ἶρον aeol. · ἱρόν. S. 25, 22. Ueber den Spiritus lenis s. Dor. § 36. Vgl. das folgende ἀπάλῳ, v. 7 ἱμεροφώνων. - καλάμῳ. Als Denk

mal uralter Einfachheit stand wahrscheinlich in Milet ein Heiligthum der Aphrodite, das mit Rohr gedeckt war. Virg. Aen. 8, 654 Romuleoque 9. Νικιάας. S. Anm. zu 15, 110. recens horrebat regia culmo. Ovid. Ovid. Met. 13, 513 Priameia coniunx. Fast. 3, 183 quae fuerit nostri, si Ahr. dial. Aeol. p. 100. dial. Dor. ὀλόχω quaeris regia, nati: Adspice de canp. 547. ἀλόχω. So nis straminibusque domum. aeolisch o öfter statt a. S. 30, 23 λῳ und gr. Ausg. p. 230. ἁπαλῷ. Die erste Silbe ist gedehnt als wäre n verdoppelt. Siehe v. 13. 25. 29, 36. 29, 25. 29, 26. 28, 14 und gr. Ausg. p. 228.

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ἀπά

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χέρρας, aeol. = χεῖρας, wie φθέρρω, φθείρω u. s. w. Hirzel, Aeol. p. 31.

10. ἀνδρ. πέπλοις aeol. Accusative statt -ους. Vgl. v. 12 μαλάκοις πόκοις, ν. 16 δόμοις, v. 20 νόσοις λύγραις. S. Dor. § 77. Grosse Ausg. p. 231. Mit ἀνδρέϊος = ἀνδρεῖος vgl. 29, 33 ἀνδρεία. 29, 39 αὐλεΐαις. 29, 5 ζοΐα. Ahr. Aeol. p. 105. [Wie Ziegler wiederholt bestätigt, hat codex c ἔργἄκατελέσεις im Texte, am Rande aber γρ. ἐκτελέσεις, was wegen Bergk p. LX zu bemerken ist.]

11. φορέοισι aeol. = φορέουσι, wie κρύπτοισι, κρύπτουσι bei Alc 15 Bergk. Ahr. Aeol. p. 72. ὐδάτινα, feine wie Wasser (ὕδωρ, Dor. § 36) durchsichtige Gewänder. S. gr. Ausg. p. 231.

βράκη ῥάκη. S. Dor. § 36 und 30,28 βραϊδίως.

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5. τυΐδε

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τῇ, illuc oder huc, wie Sappho 1, 5. Vgl. ἄλλοι bei Alc. frgm. 89. Hirzel, dial. Aeol. p. 14. [In cod. c steht ganz deutlich τύ δὲ, wie Ziegler mir versichert, nicht τὺ δὲ, wie Bergk, Anth. Gr. ed. II p. LX angiebt. Vgl. gr. Ausg.

p. 2281. αἰτήμεθα = αἰτού-
μεθα. Vgl. φορήμεθα bei Ale. 18
Bergk. Theokr. 29,30 ποτήμενα.
Ahr. Aeol. p. 145.
6. ξέννον ξένον. Vgl. v. 15.
Ahr. Aeol. p. 49 flg. ἀντιφ. Vgl.
Catull. 45, 20 mutuis animis amant,
amantur. Gr. Ausg. p. 229.

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7. Νικίαν ist zu verbinden mit Vgl. Epigr. 19, 1. Uebrigens s. Arg. zu Id. 11 und Anm. zu 11, 6.

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10

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δὶς γὰρ μάτερες ἄρνων μαλάκοις ἐν βοτάνᾳ πόκοις
πέξαιντ ̓ αὐτοένει Θευγένιδός γ ̓ ἔνεκ ̓ ἐϋσφύρω·
οὕτως ἀνυσίεργος, φιλέει δ ̓ ὅσσα σαόφρονες.
οὐ γὰρ εἰς ἀκίρας οὐδ ̓ ἐς ἀέργω κεν ἐβολλόμαν
ὀπάσαι σε δόμοις ἀμμετέρας ἔσσαν ἀπὺ χθόνος.
καὶ γάρ τοι πάτρις, ἂν ὧξ Εφύρας κτίσσε ποτ ̓ ̓Αρχίας
νάσω Τρινακρίας μύελον, ἄνδρων δοκίμων πόλιν.
νῦν μὲν οἶκον ἔχοισ ̓ ἄνερος, ὃς πόλλ ̓ ἐδάη σόφα
ἀνθρώποισι νόσοις φάρμακα λύγραις ἀπαλαλκέμεν,
οἰκήσεις κατὰ Μίλλατον ἐράνναν μετ ̓ Ἰαόνων,
ὡς εὐαλάκατος Θεύγενις ἐν δαμότισιν πέλη,

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ren liessen. Θευγένιδος. Theogenis ist die Gattin des Nicias. Ueber die Contraction vgl. Dor. § 48. ἔνεκα, wegen der Theogenis, d. h. weil sie so viel spinnt dass Eine Schur nicht ausreicht. In ἔνεκα (= ἕνεκα) ist die erste Silbe hier gedehnt. Vgl. v. 14 άvvo., 29, 36 und oben v. 4. ἐϋσφ· Aelian Var. H. 12, 1 sagt von der Aspasia: ἦν δὲ καὶ τὰ σφυρὰ ἀγαθὴ καὶ οἷα Ὅμηρος λέγει τὰς ὡραιοτάτας γυναῖκας καλλισφύρους. Vgl. Theokr. 17, 32 und Anm. zu 14, 25. [In cod. 11 steht nach Ziegler's sorgfältiger Vergleichung ἧὐσφύρω, das ε oben von zweiter Hand. Vgl. gr. Ausg.]

14. άνυσ. Ueber die Dehnung der ersten Silbe s. gr. Ausg. p. 233.

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15

Variante bei Bergk p. LX ist mit Bestimmtheit hervorzuheben, dass nach Ziegler cod. e und 6 ἁμετέρας haben.]— ἔσσαν, οὖσαν wie Sappho 75. S. Dor. § 113. [Diese Form, welche Ziegler zuerst constatirt hat, steht ganz deutlich in cod. c, sowie in den übrigen Handschr., was wegen Ahr. p. 161 zu sagen ist.] ἀπύ= ἀπό. S. gr. Ausg. p. 235.

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20

17. πάτρις, nämlich Syrakus.

ἐξ Εφύρας, Corinthius. S. Anm.

zu 16, 83. ̓Αρχίας. S. Anm. zu 15, 91. [Codex c hat, wie Ziegler nochmals bestätigt, für γάρ τοι – κτίσσε dies: γὰρ τι πατρὶς ἀνῷξε φῦρας κτίσασ.]

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:

18. νάσω Τριν. μ., insulae Trinacriae (Siciliae) medullam, totius lumen insulae. S. gr. Ausg. p. 235. 20. νόσοις λύγραις. S. v. 10 und über λύγραις λυγράς siehe Dor. § 74. Eben so steht 29, 29 ἐπωμαδίαις = ἐπωμαδίας. Vgl. 29, 39 αὐλεΐαις θύραις, gr. Ausg. p. 271. 21. Μίλλατον = Μίλατον. S. gr. Ausg. p. 236. [Dass in cod. c μίλλατο” τὸν steht bestätigt mir Ziegler.] — Ἰαόνων. Milet gilt als die wichtigste unter den Städten der Ionier in Kleinasien. Forbiger, alte Geogr. 2 p. 214 fig.

22. ὡς εὐαλ, ut pulcra colo, h. e. ornata colo insigni eburnea

est enim inter populares suas sit Theogenis. --- πέλη aeolischer Conjunctiv ohne iot subscr. S. gr. Ausg. p. 237. Ebenso παρέχης v. 23. θέλης 29, 7.

καί οἱ μνᾶστιν ἄει τῷ φιλαοίδω παρέχης ξένω. κῆνο γάρ τις ἐρεῖ τὤπος ἴδων σ ̓· ἦ μεγάλα χάρις δώρῳ σὺν ὀλίγῳ· πάντα δὲ τίματα τὰ πὰρ φίλω.

24. κῆνο, wie z. B. Sappho 2, 1 κῆνος, ἐκεῖνος. Dor. § 107. [In cod. c steht nach Ziegler's brieflichen Mittheilungen κεῖνος durchgestrichen – γάρ τις ̓ερει τῶ ποσείδων σ ̓ ἡ μ. χ. Auch cod. 6 und 11 haben nach Ziegler ἡ für ἦ].

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25. σὺν gedehnt wie in ασυνέτημι, Alc. 18, 1 oder in συνεχὲς ἀεί, Odyss. 9, 72. Vgl. gr. Ausg. p. 238 und Anm, 28, 4. [Cod. c hat in Wirklichkeit τίματα wie cod. D. Vgl. gr. Ausg. p. 239.]

XXIX.

ΠΑΙΔΙΚΑ.

Οἶνος, ὦ φίλε παῖ, λέγεται καὶ ἀλάθεα·
κἄμμε χρὴ μεθύοντας ἀλάθεας ἔμμεναι.
κἤγω μὲν τὰ φρένων ἐρέω κέατ ̓ ἐν μύχῳ.
οὐκ ὄλας φιλέειν μ ̓ ἐθέλησθ ̓ ἀπὸ καρδίας.
γινώσκω· τὸ γὰρ ἅμισυ τᾶς ζοΐας ἔχω
ζὰ τὰν σὰν ἰδέαν, τὸ δὲ λοῖπον ἀπώλετο.
χῶταν μὲν σὺ θέλης, μακάρεσσιν ἴσαν ἄγω
ἁμέραν· ὅκα δ ̓ οὐκ ἐθέλης τύ, μάλ ̓ ἐν σκότῳ.

XXIX. An den Geliebten. Fliehe den Unbestand und Uebermuth, bedenke dass du alterst, sei freundlich gegen den Liebenden. Ueber den Dialekt und das Metrum dieses im Ton des Alcaeus gehaltenen Gedichtes s. Einl. p. 28.

ΠΑΙΔΙΚΑ in der Ueberschrift entspricht dem Lat. deliciae (Virg. Eel. 2, 2). S. gr. Ausg. p. 240, Thuc. Anm. 20, 31 und Theokr. 30.

1. Οἶνος. Ein Lied des Alcaeus fing mit denselben Worten an: oi

νος, ὦ φίλε παῖ, καὶ ἀλάθεα, welche sprüchwörtlich wurden. S. Schol. Plat. p. 217, E. Athen. 2, p. 37, F. Vgl. Alc. frgm. 53 Bergk. οἶνος γὰρ ἀνθρώποις δίοπτρον. Theogn. 500 ἀνδρὸς δ ̓ οἶνος ἔδειξε νόον. Hor. Od. 1, 18 Schl. ἀλάθεα ἀλήθεια, veritas. Vgl. Christ, Lauti. p. 47, gr. Ausg. p. 243.

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5. ζοΐας = ζωῆς. S. zu 28, 10.

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6. ζὰ τ. σ. ἰδέαν, propter tuam speciem, wenn du mir erscheinst. Sa aeol. διά. S. gr. Ausg. p. 244. 7. θέλης. S. Anm. 28, 22. -μακάρ. ἴσαν. Vgl. Anm. 2, 15. 8. ὅκα. S. Dor. § 38. Aeolisch wäre ὄτα, Sapph. 43. Dor. § 94.

τύ. S.

πῶς ταῦτ ̓ ἄρμενα, τὸν φιλέοντ ̓ ἀνίαις δίδων;
ἀλλ ̓ εἴ μοί τι πίθοιο νέος προγενεστέρῳ,
τῷ κε λώϊον αὖτος ἔχων ἔμ ̓ ἐπαινέσαις.
ποίησαι καλίαν μίαν εἰν ἕνι δενδρίῳ,
ὅπποι μηδὲν ἀπίξεται ἄγριον ὄρπετον.
νῦν δὲ τῶδε μὲν ἄματος ἄλλον ἔχης κλάδου,
ἄλλον δ ̓ αὔριον, ἐξ ἑτέρω δ ̓ ἕτερον μάθης.
καὶ μέν σευ τὸ κάλον τις ἴδων ῥέθος αἰνέσαι,
τῷ δ ̓ εὖθυς πλέον ἢ τριέτης ἐγένευ φίλος,
τὸν πρῶτον δὲ φιλεῦντα τρίταιον ἐθήκαο.
ἄνδρων τῶν ὑπερανορέων δοκίμοις πνέειν.
φίλη δ ̓, ἆς κεν ἔρης, τὸν ὅμοιον ἔχην ἄει.
αἱ γὰρ ὧδε πόης, ἄγαθος μὲν ἀκούσεαι
ἐξ ἄστων· ὁ δέ τοί κ ̓ Ἔρος οὐ χαλέπως ἔχοι,
ὃς ἄνδρων φρένας εὐμαρέως ὑποδάμναται,

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12. ποίησαι κτλ., mache dir ein festes Nest (nidum, vgl. Hor. Od. 3, 4, 14. Epist. 1, 10, 6) auf einem Baum flattere nicht von einem Liebhaber zum andern (v. 15) hin und her.

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13. ἀπίξεται ἀφίξεται. Dor. § 37. S. gr. Ausg. p. 248. ὄρπε· τους ἑρπετόν, serpens (24, 56) wie bei Sapph. 40. Vgl. v. 35 ἐπιτρόπης, ἐπιτρέπεις, und gr. Ausg.

14. ἔχης = ἔχεις. S. gr. Ausg. 15. μάθης, quaeris, von μάθαμε ματέω, ματεύω. S. gr. Ausg. p. 249.

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16. σευ. Ueber die Stellung s. 2, 55. [καὶ μέν σευ ist Conj. von Ahr. S. gr. Ausg. p. 250. Nach Ziegler hat cod. c καί κέν σαευ κεν.]

19. ἄνδρων κτλ. „redolere“ videris consuetudinem virorum elegantiorum qui non sunt,,sortis tuae',

-

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(Hor. Od. 4, 11, 22). Ueber δοκίμοις s. Anm. 30, 26.

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20. φίλη κτλ., ama, quamdiu vacas amori, semper habere similem. Ueber φίλη s. Anm. zu 28, 3. ἆς ἕως. S. 14, 70. ἔρης ἐρᾷς ist Conjectur für Vulg. seit Steph. κε ζώης. S. unten. ὅμοιον· ὁμοῖον. Vgl. 30, 21, Dor. § 36 Anm. und 28, 3 ὑμ. ἔχην ἔχειν. S. Dor. § 127, unten v. 28 dasselbe und v. 31 πέλην: [Ed. Iunt. hat ἃς κε ζόης, Call. ωσκε ζώης. Die weiteren Varianten s. gr. Ausg. p. 253. Hier ist nur hervorzuheben, dass cod. c nach Ziegler alo ne und dann ein Wort, dessen erster Zug mit Typen schwer wiederzugeben ist. Dieses Wort sollte schwerlich τρόης (wie Bergk referirt), sondern, verglichen z. B. mit Cod. Mosq. von Hymn. in Cer. bei Bücheler v. 95, 97 u. a., wie ich vermuthe, ζόης sein, was auch am Rande links steht. 21-22. πόης ποιεῖς: Vgl. unten v. 24 und 30, 13. Ahr. Aeol. p. 101. ἄγαθ. ἀκούσεαι, „bene audies" et rumorem bonum colliges (Cic. de Legg. 1, 19, 50). Vgl. Hor. Epist. 1, 7, 37-38. 1, 16, 17. Mit ἐκ vgl. 26, 31 und gr. Ausg. p. 211.

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22. Ἔρος wie schon Iliad. 14, 315. Theokr. 30, 10 (30, 2). Sappho 40. Vgl. 30, 27. Gr. Ausg. p. 278.

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κῆμε μάλθακον ἐξ ἐπόησε σιδαρίω.
ἀλλ' ὑπὲρ ἀπάλω στύματός σε πεδέρχομαι
ὀμνάσθην, ὅτι πέρυσιν ἦσθα νεώτερος,
χῶτι γηραλέοι πέλομες πρὶν ἀποπτύσαι
καὶ ῥῦσοι, νεότατα δ ̓ ἔχην παλινάγρετον
οὐκ ἔστι· πτέρυγας γὰρ ἐπωμαδίαις φόρει,
κἄμμες βαρδύτεροι τὰ ποτήμενα συλλάβην.
ταῦτα χρὴ νοέοντα πέλην ποτιμώτερον,
καί μοι τὠραμένῳ συνέραν ἀδόλως σέθεν,
ὅπως, ἁνίκα τὰν γένυν ἀνδρείαν ἔχης,
ἀλλάλοισι πελώμεθ ̓ ̓Αχιλλέϊοι φίλοι.
νῦν μὲν κἠπὶ τὰ χρύσια μᾶλ ̓ ἕνεκεν σέθεν
βαίην καὶ φύλακον νεκύων πεδὰ Κέρβερον,

24. σιδαρίω. Vgl. v. 37 χρύσια. [Codex c hat nach Ziegler's Berichte ἐξεποησε, aber über o ein mit vier oder fünf kleinen Strichelchen ausgestrichenes . Aus diesen Strichelchen erklärt sich vielleicht die nach Ziegler's Mittheilung jedenfalls falsche Angabe Bergk's, als habe dieser Codex ἐξεποη|σε.]

25. ἀλλὰ κτλ., sed per tenerum tuum os te adeo, obsecro, ut memor sis. ὑπὲρ mit gedehnter Ultima wie πέρυσιν v. 26. Apoll. Rhod. 3, 701 λίσσομ ̓ ὑπὲρ μακάρων͵ σέο τ αὐτῆς ἠδὲ τοκήων. στύματος στόματος. S. 28, 3. πεδέρχομαι μετέρχομαι, adeo te, h. e. obsecro te. Herod. 6, 68 μετέρχομαι σε πρὸς θεῶν εἰπεῖν τὠληθές. πεδά ist aeol. μετά. S. v. 38 Sappho 68. Ahr. Aeol. p. 151.

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26. ὀμνάσθην = ἀμνασθῆναι, ἀναμνησθῆναι. S. Anm. 30, 23 dasselbe Verbum. Mit der Infinitivendung vgl. Alc. 20 νῦν χρὴ μεθύσθην (= nunc est bibendum, Hor. Od. 1,37,1).—πέρυσιν mit gedehnter erster Silbe wie vnèo v. 25 mit gedehnter letzter. Vgl. 28, 4 und besonders gr. Ausg. p. 254-255.

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29. ἐπωμαδίαις ist Accusativ. S. Anm. zu 28, 20. Ueber die Femininalendung s. Anm. 7, 23. — φόρει (φέρει) von φορέω wie δόνει von δονέω bei Sappho 40 p. 890 Bergk u. a. S. gr. Ausg. p. 257.

30. ποτήμενα. S. Anm. zu 28, 5. – συλλ. = συλλαβεῖν. Dor. § 127. 31. πέλην, πέλειν. Vgl. v. 20 ἔχην. ποτιμώτερον, mitiorem et suaviorem. Theophr. caus. pl. 4, 4, 12 καρποὶ γλυκεῖς καὶ πότιμοι. 32. συνέραν, συνερᾶν. Ahr.

Aeol. 141.

P.

33. ἀνδρείαν, virilem: vgl. Anm. 28, 10 und Αχιλλέϊοι in v. 34. (Nicht von ἡ ἀνδρεία!)

34. Αχιλλέϊοι φίλοι. Die Freundschaft zwischen Achilles und Patroklus ist sprüchwörtlich. Siehe Iliad. 23, 84 flg. und gr. Ausg. p. 258. 37. vvv, jetzt bestände ich dir zu Liebe alle Mühen und Kämpfe des Herkules. κἠπὶ. Vgl. Anm. 4, 4. – χρύσια. S. Dor. § 35 b. φύλακον. Vgl. Iliad. 24, 566 οὐδὲ γὰρ ἂν φυλάκους λάθοι. φύλακον steht yor πεδὰ Κέρβερον wie 15, 19–20 ἑπταδράχμως κυνάδας u. s. w. vor πέντε πόκως. Vgl. 30, 2. πεδά = μετά. Arist. Ran. 111͵ ἡνίκα Ἡρακλῆς ἦλθεν ἐπὶ τὸν Κέρβερον. Das aeolische лedά wie z. B. Sappho 38 p. 889 Bergk. Theokr. 30, 21. 29, 25. Sogar auf kret. Inschr., Wiener Ak. Wiss. ph.-hist. Cl. Bd. 30 T. II, 21. [Vers 37 und 38 sind mit Meineke vor 35 und 36 gestellt.]

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